करार का बंधन (Karaar Ka Bandhan - The Bond of Agreement)

नेहा की ज़िंदगी कभी इतनी उलझी हुई नहीं थी. उसे हमेशा लगा था कि उसका रास्ता सीधा और स्पष्ट है: पढ़ाई, अच्छी नौकरी, और फिर अपनी पसंद के लड़के से शादी. लेकिन नियति ने कुछ और ही तय कर रखा था. उसके पिता, एक छोटे शहर के ईमानदार व्यापारी, एक गलत बिज़नेस डील में बुरी तरह फँस गए थे. कर्ज़ इतना बढ़ गया था कि परिवार का घर भी दाँव पर लग गया था.
तभी समीर मेहरा का प्रस्ताव आया. समीर, शहर के सबसे बड़े बिल्डर, रवि मेहरा का इकलौता बेटा. वो एक नामी-गिरामी, रौबदार और कुछ हद तक अहंकारी शख्स था. नेहा उसे कभी पसंद नहीं करती थी. उसकी अकड़, उसकी बेफिक्री, सब कुछ नेहा की सादगी और सिद्धांतों के विपरीत था. लेकिन उसके पिता ने समीर के पिता से कर्ज़ लिया था, और अब समीर के पिता ने एक शर्त रख दी थी: नेहा से समीर की शादी. ये कोई प्यार का रिश्ता नहीं था, बल्कि एक करार का बंधन था – एक समझौता, एक डील.
"नेहा, तुम समझ रही हो न? हमारे पास और कोई रास्ता नहीं है," पिता ने गिड़गिड़ाते हुए कहा था. उनकी आँखों में बेबसी और शर्म साफ दिख रही थी. नेहा ने अपने परिवार को बिखरते हुए नहीं देख सकती थी. उसने भारी मन से हाँ कर दी.
शादी धूम-धाम से हुई, लेकिन नेहा के लिए यह एक नाटक से ज़्यादा कुछ नहीं था. दुल्हन के जोड़े में भी उसे अपने आप को एक कैदी जैसा महसूस हो रहा था. समीर ने कभी उससे सीधी बात नहीं की थी, न ही उसने शादी के लिए कोई उत्साह दिखाया था. उसकी आँखों में बस एक ठंडापन और कुछ हासिल करने की संतुष्टि थी.
शादी के बाद, समीर ने तुरंत नियम तय कर दिए. "देखो नेहा, ये शादी बस एक दिखावा है. मेरे परिवार के लिए, समाज के लिए. हमें एक-दूसरे से कोई मतलब नहीं रखना है. तुम अपनी ज़िंदगी जियो, मैं अपनी. बस, ये मत भूलना कि तुम मेरी पत्नी हो, और तुम्हें मेरे परिवार के सामने वो भूमिका निभानी है."
नेहा को यह बात पसंद नहीं आई, पर उसने विरोध नहीं किया. उसे पता था कि यह रिश्ता एक समझौता है, और अब उसे इसकी शर्तों पर चलना होगा. समीर ने उसे एक अलग कमरा दिया, और उनका जीवन दो समानांतर पटरियों पर चलने लगा. वे एक ही घर में रहते थे, एक ही मेज पर खाना खाते थे, लेकिन उनके बीच एक अदृश्य दीवार थी.
समीर अपने काम में व्यस्त रहता था, और नेहा अपनी डिग्री पूरी करने में. धीरे-धीरे नेहा ने समीर के घर में खुद को ढालना शुरू किया. उसने देखा कि समीर जितना ऊपर से कठोर दिखता था, अंदर से उतना नहीं था. वह अपने नौकरों के साथ सम्मान से पेश आता था, और अपने बूढ़े दादा-दादी का बहुत ख्याल रखता था. एक बार, समीर की दादी की तबीयत खराब हुई, और नेहा ने रात-रात भर जागकर उनकी देखभाल की. समीर ने यह सब देखा, पर कुछ कहा नहीं.
एक शाम, समीर दफ्तर से देर से आया. वह बहुत परेशान लग रहा था. नेहा ने देखा कि उसकी फाइलें बिखरी पड़ी थीं और वह गुस्से में फोन पर बात कर रहा था. नेहा ने हिम्मत करके उससे पूछा, "क्या हुआ समीर? तुम ठीक हो?"
समीर ने उसे घूर कर देखा, जैसे उसे नेहा के दखल देने की उम्मीद नहीं थी. फिर, एक लंबी साँस लेकर बोला, "एक बड़ा प्रोजेक्ट हाथ से निकल रहा है. किसी ने हमारी बिड लीक कर दी है." उसकी आवाज़ में निराशा थी.
नेहा को लगा कि वह पहली बार समीर के अंदर के इंसान को देख रही है, जो सिर्फ़ एक सफल बिज़नेसमैन नहीं, बल्कि एक परेशान इंसान भी था. "क्या मैं किसी तरह मदद कर सकती हूँ?" नेहा ने पूछा. "मैंने बिज़नेस स्टडीज़ पढ़ी है, शायद..."
समीर ने हैरानी से उसे देखा. "तुम क्या करोगी?"
"मुझे पता है, मेरी डिग्री अभी पूरी नहीं हुई है, लेकिन मैंने कुछ केस स्टडीज़ पढ़ी हैं... कभी-कभी बाहर वाला व्यक्ति बेहतर समाधान देख सकता है," नेहा ने धीरे से कहा.
हिचकिचाते हुए समीर ने उसे कुछ कागज़ दिखाए. नेहा ने ध्यान से उन्हें पढ़ा. अगले कुछ दिनों तक, नेहा ने समीर के साथ प्रोजेक्ट पर काम किया. उसने कुछ ऐसे बिन्दुओं पर ध्यान दिया, जो समीर की टीम ने नज़रअंदाज़ कर दिए थे. उसकी ताज़ी सोच और विश्लेषणात्मक कौशल ने समीर को प्रभावित किया. एक हफ्ते बाद, समीर ने वह प्रोजेक्ट जीत लिया.
"तुम्हारी वजह से हुआ ये," समीर ने पहली बार नेहा की आँखों में देखकर कहा. उसकी आवाज़ में आश्चर्य और आभार था. "मैंने सोचा नहीं था कि तुम इतनी..."
"मैं सिर्फ़ अपनी 'भूमिका' निभा रही थी, समीर," नेहा ने कहा, पर उसकी आवाज़ में पहले जैसी कड़वाहट नहीं थी.
इस घटना के बाद, उनके रिश्ते की बर्फ पिघलने लगी. समीर ने नेहा के साथ और अधिक समय बिताना शुरू किया. वे बिज़नेस, किताबें और कभी-कभी बचपन की बातों पर भी चर्चा करते. समीर ने नेहा की पढ़ाई में मदद की, और नेहा ने उसे अपने परिवार के साथ अधिक समय बिताने के लिए प्रोत्साहित किया. यह करार का बंधन धीरे-धीरे एक दोस्ती में बदल रहा था, जिसमें सम्मान और समझदारी थी.
एक दिन, नेहा को अपने पिता का फोन आया. उन्होंने बताया कि उन्होंने सारा कर्ज़ चुका दिया है और अब वे पूरी तरह आज़ाद हैं. "अब तुम आज़ाद हो, नेहा. तुम्हें अब इस रिश्ते में रहने की ज़रूरत नहीं," पिता ने कहा.
नेहा को अजीब लगा. वह जानती थी कि उसे आज़ादी मिल गई है, लेकिन अब उसे आज़ाद महसूस नहीं हो रहा था. उसे समीर की आदत हो गई थी, उसकी शांत उपस्थिति की, उसकी कभी-कभी होने वाली प्रशंसा की.
उसी शाम, समीर ने उसे बुलाया. "नेहा, मुझे पता है कि अब तुम्हारे पिता का कर्ज़ चुकता हो गया है. अब तुम आज़ाद हो." उसने नेहा की आँखों में देखा. "यह रिश्ता एक समझौते के तहत शुरू हुआ था, लेकिन अब..." वह रुका. "क्या तुम अब भी इस 'करार' में रहना चाहती हो?"
नेहा ने समीर की आँखों में देखा. उनमें अब वो ठंडापन नहीं था, बल्कि एक अजीब सी उम्मीद थी. उसे एहसास हुआ कि यह अब सिर्फ़ एक समझौता नहीं था. यह अब दो लोगों का रिश्ता था, जो एक-दूसरे को समझने लगे थे, एक-दूसरे का सम्मान करने लगे थे, और शायद, एक-दूसरे की परवाह भी करने लगे थे.
"समीर," नेहा ने धीरे से कहा, "हर बंधन की शुरुआत एक समझौते से ही होती है, चाहे वह प्यार का हो या मजबूरी का. मायने यह रखता है कि हम उसे कैसे निभाते हैं." उसने हल्की सी मुस्कान दी. "मैं इस बंधन में रहना चाहती हूँ...अगर तुम भी चाहो."
समीर के चेहरे पर एक राहत भरी मुस्कान आई. उसने नेहा का हाथ थामा. वह हाथ, जो पहले एक समझौते की ज़ंजीर था, अब एक नए, अनकहे रिश्ते की शुरुआत का प्रतीक था. करार का बंधन अब प्यार और विश्वास के अटूट बंधन में बदल चुका था.
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